बाल श्रम एवं बाल अधिकार

“14 वर्ष से कम उम्र के किसी बालक को किसी संकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाए।”

                                                                       -अनु- 24, भारतीय संविधान

बाल श्रम का प्रचलन तो प्राचीनकाल से चला आ रहा है, किन्तु पूर्व में यह समस्या के रूप में नहीं थी। उन दिनों परिवार के बालक अपने गृह कार्य में अपने बड़ों का हाथ बँटाते थे। किसान के बालक पशुचारण करते थे। लुहार का बालक धोंकनी चलाता था तथा लड़कियाँ गृह कार्य में अपनी माँ का हाथ बँटाती थीं। यदा-कदा ही कोई बालक रईसों अथवा जागीरदारों के यहाँ वेतनभोगी होकर कार्य करता था।

कुछ ऐसे उद्योग हैं, जिनमें बाल श्रमिक अधिक उपयुक्त माने जाते हैं, जैसे-आतिशबाजी बनाने का उद्योग, मिर्जापुर में कालीन बुनने का उद्योग, काँच की चूड़ियाँ बनाने का उद्योग, बीड़ी उद्योग आदि। ऐसे भी उद्योग हैं, जिनका बाल श्रमिकों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

इस समस्या के मूल में निर्धनता, अज्ञानता तथा अशिक्षा है। कुटीर और ग्रामीण उद्योगों का ह्नास अथवा स्वरूप बदलने से ग्रामीण श्रमिकों का नगरों की ओर पलायन भी बाल श्रमिकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि का कारण है।

वयस्क श्रमिकों की भाँति ये बालक न तो संगठित हो सकते हैं और न उनकी कोई यूनियन ही बन पाती है। फलतः सेवायोजक उनका बुरी तरह शोषण करते हैं, कम से कम मजदूरी देकर अधिक से अधिक काम लेते हैं। द चाइल्ड एण्ड द स्टेट ऑफ इण्डिया (The Child and the State of India) की सर्वेक्षण रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग से 50» बच्चे स्कूल के द्वार तक ही नहीं पहुँचते।

बाल श्रम

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त सन् 1960 तक 14 वर्ष तक की आयु के सभी बालकों को अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य निश्चित किया गया था, किन्तु वह दिवास्वप्न ही बनकर रह गया। 1986 में बनाया गया बाल मजदूरी (प्रतिबंध और नियमन) कानून बाल श्रमिकों के लिए कार्य करने की स्थिति और कार्य करने के घंटों की व्यवस्था तो करता है, किन्तु देय न्यूनतम वेतन निश्चित नहीं करता। इस कानून के अनुसार आतिशबाजी बनाने तथा रासायनिक उद्योगों जैसे जोखिम भरे उद्योगों में बाल श्रमिक पूर्णतया प्रतिबंधित हैं।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 24 भी 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने, खान या जोखिमपूर्ण नियोजन में नहीं लगाने का प्रावधान करता है। इसके अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बालक को किसी परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाये।

एम-सी- मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने बाल श्रमिकों से संबंधित निम्नलिखित दिशा-निर्देश जारी किये हैं:-

1-    सरकार यह सुनिश्चित करे कि विस्फोटक एवं ज्वलनशील पदार्थों का निर्माण करने वाले कारखानों में बालकों को नियोजित नहीं किया जाये।

2-    माचिस निर्माण करने वाले कारखानों में पैकिंग का कार्य करने वाले बालकों को अलग परिसर में रखा जाये।

3-    बालकों से एक दिन में छः घण्टे से अधिक कार्य नहीं लिया जाये।

4-    बालकों के लिये परिवहन की व्यवस्था की जाये।

5-    बालकों के मनोंरजन और शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाये जायें।

6-    बालकों के समुचित आहार की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये।

7-    श्रमिकों के लिये कल्याण कोष की स्थापना की जाये।

8-    श्रमिक बालकों के लिये एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाये।

बाल श्रम की समस्या केवल भारत की ही नहीं, बल्कि विश्वव्यापी है। जिन देशों ने आंशिक रूप से अथवा पूर्ण रूप से इस समस्या पर विजय प्राप्त कर ली है, उनका निष्कर्ष है कि जब तक प्राथमिक शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार मानकर अनिवार्य नहीं किया जाता, इस समस्या का उपचार संभव नहीं है। भारत इस दिशा में कदम बढ़ा चुका है। इंतजार है तो केवल सकारात्मक परिणाम का।

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