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7 December 2020
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Posted By Editor
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“न्यायाधीशों द्वारा सम्पत्ति की घोषणा”
न्यायिक सुधार की दिशा में एक कदम
“न्यायपालिका लोकतंत्र का मजबूत आधार स्तंभ है।”
-सर्वोच्च न्यायालय
न्यायपालिका लोकतंत्र का एक मजबूत आधार स्तंभ है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका के महत्व को समझते हुए इसे कार्यपालिका से स्वतंत्र इकाई के रूप में स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किया है।
भारत में न्यायपालिका के महत्व को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि जब केन्द्र एवं राज्यों के मध्य विवाद की स्थिति होती है तो सर्वोच्च न्यायालय ही उनके विवादों को सुलझाता है, उसकी सीमाओं की व्याख्या करता है तथा उनका निर्धारण करता है। साथ ही साथ मौलिक अधिकारों का संरक्षण करने के लिए प्रलेख जारी करने की शक्ति भी उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों को प्रदान की गयी है।
न्यायपलिका के उक्त स्वरूप को देखते हुए ही आम जनता के बीच न्याय के मन्दिरों के प्रति अच्छी धारणा आज भी बनी हुई है। वर्तमान समय में देश में न्यायपालिका ही एकमात्र विश्वसनीय संस्था जान पड़ती है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जिन्होंने न्याय के मन्दिर की शुचिता पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल संस्था द्वारा पिछले दिनों फ्भारतीय न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार” नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान 77% लोगों ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात को स्वीकार किया है। न्यायपालिका के पास अवमानना के लिए दण्ड देने का अधिकार है जिसके कारण प्रेस भी न्यायिक निर्णयों की आलोचना करने से घबराती है। यही कारण है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बढ़ा है।
1973 में जब इंदिरा गाँधी की सरकार की वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा करते हुए ए-एन-राय को देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था, तब न्यायपालिका के बढ़ते वर्चस्व को लेकर विवाद खड़ा हुआ था, जिसके बाद तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था।
एक और उल्लेखनीय प्रकरण 2009 का है, जब केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से जजों की सम्पत्ति से संबंधित सूचना माँगने पर सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्रीय सूचना आयोग के मध्य विवाद छिड़ गया। जबकि एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मामले में स्वयं उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि संसद तथा राज्य विधान सभाओं के प्रत्याशी नामांकन के समय अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करें किन्तु यही निर्णय स्वयं पर लागू करने में न्यायपालिका ने संकोच किया।
ए-आर-अंतुले बनाम आर-एस-नायक के वाद में भी न्यायालय ने निर्णय में कहा था कि राज्य की परिभाषा में न्यायालय शामिल हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 में भी न्यायाधीश को एक लोकसेवक माना गया है। लेकिन जहाँ सूचना के अधिकार की बात आती है, न्यायाधीशगण स्वयं को लोकसेवक मानने से इंकार कर देते हैं।
सन् 1997 में न्यायमूर्ति जे-एस- वर्मा की खण्डपीठ ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा था कि उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों में सुधार की दिशा में तथा पारदर्शिता लाने की दिशा में यह एक बड़ा कदम था। इस प्रस्ताव के संदर्भ में केन्द्रीय सूचना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय से सूचना माँगी थी, किन्तु तत्कालीन न्यायाधीश के-जी-बालकृष्णन् ने यह कहते हुए बहस छेड़ दी कि सर्वोच्च न्यायालय सूचना के अधिकार से बाहर है तथा उन्हें अपनी सम्पत्ति की घोषणा करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है।
इस मामले ने नया मोड़ तब लिया, जब कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी-वी-शैलेन्द्र कुमार ने स्वयं अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा अपनी निजी वेबसाइट पर डालते हुए इसे सार्वजनिक कर दिया।
इस घटना के अगले ही दिन प्रधान न्यायाधीश के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों ने सम्पत्ति की घोषणा करने का निर्णय लिया।
यह कदम न्यायिक सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा सकता है। यह न्यायिक सुधारों की दिशा में एक ऐसे द्वार को खोलता है, जिससे और ज्यादा रोशनी की उम्मीद की जा सकती है।